धर्म-शक्ति का रूप हूँ मैं।
शीत मास की धूप हूँ मैं।
अत्याचार और अधर्म करोगे
बेटी दुर्गा और काली है।
सदावार और धर्म से चलोगे
तो बसंती सूरज की लाली है।
बेटी का सदा सम्मान करो तुम
भूले से ना अपमान करो तुम
उनके घर में रहने से खशिया हो खुशियाँ रहती है।
जर्रा-जर्रा, धरती अम्बर धीस, चीख चीख कर कहती है।
बेटी बिन घर घर नहीं लगता ।
बिन बेटी सोया भाग्य नहीं जागता ।
पूरी दुनीय में परचम लहराया है।
अपनी मुट्ठी में चाँद को पाया है।
सूरज तक पहुंचाया है अपने जान को।
एकाग्र किया है अपने ध्यान को।
घृणित असुरों ने जो धाव दिए हैं।
बेटी के मर्यादा पे पाँव दिये है।
काली बनकर संहार करेगी
पूरी दुनिया अब याद रखेगी।
ब्रह्माण्ड का कण कण कहता है।
क्या बिन बेटी कोई रहता है ?
युग-युग में पूजी जाती है।
अधिकाधिक आदर भी पाता है।
शब्द न शेष रह जायेगा।
महिमा न कोई गा पाएगा।
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